नीयत ही नही भरती दिल-ए-बेकरार की,
मेरी साँसों में थी खुश्बू बाहर की,
गिर के संभलू तो अक्सर सोचता हूँ,
क्यू ठोकरें है इतनी राहों में प्यार की,
अब ये ख़याल-ए-तंगदस्तियाँ किसे बेचें,
हम जी रहे हैं एक ज़िंदगी उधर की,
तेरे ना चाहने पर भी तुझे चाहते रहे,
ये वो खता है जोकि हमने बार बार की,
हर बात की हद है ये झूठ तो नही,
कोई इंतेहाँ बता दे हमें इंतज़ार की..!!