जाते लम्हों को रोकना चाहा,
फिर तेरा हाल पूछना चाहा,
सोचता हूँ ये मैने क्या चाहा,
बारिश-ए-खाहिश-ए-ख़यालों में,
एक मुर्ख ने भीगना चाहा,
कितनी उमीदें कितनी हसरतें हैं,
तुझपे क्या-क्या ना लुटाना चाहा,
मै तेरे जैसा नामवर तो नही,
पर, तुझको चाहा तो क्या बुरा चाहा,
नाकामी ज़ुबाँ खोलने नही देती,
क्या बताऊं के मैने क्या चाहा,
सज़ा ये है के उम्र भर तड़पो,
जुर्म इतना है के उन्हें चाहा...!!