शबनम को भी हमेशा बरसात ही समझा,
हमने तो इशारों को भी बात ही समझा,
हाँ तुझसे गुफ्तगू की खाहिश तो बहुत थी,
पर दीदार को भी मैने मुलाकात ही समझा,
इत्तेफ़ाक़न राह में मिलते थे वो अक्सर,
इसको भी मुक़द्दर की सौगात ही समझा,
चाहत में तुम्हारी मै खुद को भूल गया था,
ठुकरा दिया तुमने तो औकात भी समझा,
परदा पड़ा हुआ था हमारी निगाह पर,
अंधेरे को भी हमने तो रात ही समझा ।।