काश ! मै खुदा या खुदा की जगह होता,
तो मुफ़लिसी को सारे जहाँ से मिटा देता,
गुजरा हुआ जमाना मुझे क्या सज़ा देता,
ये मै था जो छुपा गया दिल में हर एक बात,
कोई और गर होता तो तमाशा बना देता,
बेकस्द भरी बज्म में तू होता शर्मसार,
मै चाहता हर राज़ से परदा उठा देता,
सोचा किसी को रुस्वा करना ठीक नही,
वरना तेरे रुतवे को खाक़ में मिला देता,
बैठा था जो लगाके शराफ़त की नुमाइश,
चाहता तो उसके हर गुनाह को गिना देता,
मैने ही कदम रोक लिए बढ़ते उस तरफ,
गर चाहता तो खून के दरिया बहा देता...!!