सिवाय भटकने के कोई रास्ता नही,
सुनसान सी हैं राहें कोई नक्श-ए-पाँ नही,
ये रात, ये आवारगी कोई रहनुमा नही,
बस्ती में दूर-दूर तक कोई सदा नही,
ज़ेर-ए-सज़र से दरबाजे दरीचे बंद हैं,
बस्ती वालों को किसी से कोई वास्ता नही,
यूँ जागते रहते हैं हम उठकर तमाम रात,
आँखों में जैसे अब कोई सपना बचा नही,
हमने तो हर सज़ा को मुक़द्दर समझ लिया,
हमें ज़िल्ल-ए-इलाही से कोई गिला नही,
हर चश्म तर करती है एक सवाल,
क्यूँ आदमी के वस में कोई हादसा नही...!!