मुझको इस आस में जीने का सलीका नहीं आता,
कोई मेरा है तो फिर मुझ में सिमट क्यों नहीं जाता !
दिल-ए-नादां की तसल्ली को तो है अफ़साने बहुत,
फिर भी ये दिल चुप के संभल क्यों नहीं जाता...!
हजारों लोग है बसते इस जहाँ में पर,
जाने तेरे सिवा मेरे दिल का नगर बस क्यों नहीं पाता !
सुबह-ओ-शाम आँखों में बसी रहती है सूरत तेरी,
मैं तेरे दिल में बस जाऊं मुझ को ये हुनर क्यों नहीं आता !!