निगाह-ए-यार ने क्या कह दिया ख़ुदा जानें,
तड़प के तोड़ दिया दम मेरी तमन्ना ने.…
ग़म-ए-फ़िराक़ ख़ुद एक शोला था ही था लेकिन,
मेरी निगाह में तौहीन है मोहब्बत की,
ये बात-बात पर आँखों में अश्क़ भर लाने.…
करम तो फ़र्ज़ यग़ानों को था बजा लेकिन,
कभी-कभी तो बड़े काम आये बेगाने.…
इस एअतिराफ़-ए-मोहब्बत पे क्यों ना लूट जाऊं,
तेरी निग़ाह जो मुझ से लगी है शर्माने......
मिज़ाज-ए-देहर बदलना मुहाल है लेकिन,
अभी बदल दें, अगर चाह तेरे दिवाने......
ग़म-ए-ज़माने में यूँ जल ख़ुलूस-ए-निय्यत से,
पराई आग में जलते हैं जैसे परवाने......
ये एहतिराम-ए-शब-ए-ग़म नहीं तो फ़िर क्या है ?
शुरू-ए-शाम से छलका रहा हूँ पैमाने……
बहार के मुतमन्नि तो है सभी.…
जो गुलिस्तां पे गुज़री है कोई क्या जाने…???