"Kuch Jazbaat" can say everything in its own beautiful way and connected somewhere us to our heart with our deep emotions. It's express our Feeling, Love, Affection, Care, Sorrow and Pain.

Tuesday, January 14, 2014

Kya Karu Ki Kuch Samjh Nahi Aata







दिल है तन्हा, विराना सा,
कोई साहिल नज़र नहीं आता,
जो कभी बरसे इस बंज़र पे,
वो सावन नज़र नही आता,
क्या करू की कुछ समझ नही आता ..!!




बख़ूबी जानता हूँ.…दिलो को जीतना,
लोगो के दिलो पर राज करता हूँ,
हर शख़्स को जरूरत मेरी
हर दिल में अपने कुछ जज़्बात रखता हूँ,
पर कोई समझा नही मेरे ही दिल को.....
क्या करू की कुछ समझ नही आता..!!









ग़मो से चूर, हालातो से मज़बूर,
बढ़ चले है क़दम, मयख़ाने की ओर,
नशें में मगरूर, आँखों में बसा बस उसका ही नूर,
लड़खड़ाते है कदम अब, पर कोई सहारा नज़र नही आता,
क्या करू की कुछ समझ नही आता..!!











हर मोड़ पर खफ़ा तक़दीर मेरी,
हर राह पर तूफ़ान है,
ठोकरों से सजी है राहें मेरी,
वाक़िब हूँ इन मंज़र से, पर संभल नही पाता,
क्या करू की कुछ समझ नही आता..!!






तन्हा हैं राहें मेरी, ज़िंदगी वीरानी है,
तक़दीर भी नही साथ अपने.....
हर मोड़ पर सिख्सत खाई है,
मज़िल की ख़बर है मुझको, फिर भी तन्हाई है,
लाखों जतन कर के भी ख़ाली हाथ हूँ आता,
क्या करू की कुछ समझ नही आता..!!






लड़ के, थक के, हार के...
नशीब और हालात से अपने,
अब ये निगाहें उस "रब" पर है,
पर इतनी बड़ी क़ायनात मे...
क्या सुनेगा सदा वो मेरी..??
अब इस दिल में है बेबसी और मन मे हताशा,
क्या करू की कुछ समझ नही आता..!!









कोई बदनसीब हो या गम-ए-तन्हाई में हो...
सुना है वो "रब" हर दर, हर मोड़ पर उनकी सदा सुनता है,
मेरा भी एक दिल है, जो ज़ख्मो से छलनी पड़ा है,
मेरे हर दर्द, हर आह में हर पल,
उसकी ही रेहमत का तल्ब्गार रहा है,
पर क्या इस पूरी क़ायनात में.....
सिर्फ एक मेरी ही सदा वो नही सुन पता
क्या करू की कुछ समझ नही आता..!!





जागती है निगाहें मेरी, पर सोया-सोया लगता हूँ,
जब भी कोशिश करता हूँ मुस्कुराने की , रोया-रोया लगता हूँ,
रहता हूँ महफ़िलो में कभी, पर तन्हा-तन्हा लगता हूँ,
अब थक गया ज़िंदगी से, नफ़रत हो गई नसीब से,
क्यों खेलती है ज़िंदगी इस तरह, कोई मुझको समझता,
क्या करू की कुछ समझ नही आता..!!









कश्ती है मेरी बीच भॅवर...
और मन्ज़र तूफानी है,
छाया है गुमनाम अँधेरा मुझ पर इस कदर...
की अब कुछ नज़र नहीं आता,
या रब्बा तू ही कुछ बता, अब कुछ समझ नही आता,
क्या करू की कुछ समझ नही आता..!!







एक बचपन का साथ जो था सबसे ख़ास,
एक यार जो हर गम, हर मोड़ पर था मेरे साथ,
एक प्यार, जिसका  था सुरूर मुझको,
एक किस्मत, जिस पर था गुरूर मुझको,
एक जिंदगी, जिसमे था सुकून मुझको,
"मेरी क़िस्मत, मेरी ज़िंदगी, मेरा प्यार, मेरा यार और मेरे बचपन का साथ",
सब कुछ था मेरे पास.…
सब छीन लिया क्यों फिर मेरा एक साथ,
अब तन्हा है दिल मेरा, वीरानी है ज़िन्दगी,
रेहमतो का तल्ब्गार हूँ, अधूरी है बन्दगी,
कहाँ है "रब" मेरा, मुझे नज़र नही आता,
क्या करू की कुछ समझ नही आता..!!


कई वर्षों से ये निगाहें, ढूंढती है खुशियों के साये,
जिसे लगता है सब कुछ पहले जैसा हो जायेगा,
वो गुज़रा पल फिर लौट आयेगा,
"फिर होंगी खुशिया सारी…
फिर वो मस्ती, वो यारो की यारी…
वो चमकते नशीब के सितारे",
पर दिल-ए-नादां, वो गुज़रा पल कब है लौट के आता,
क्या करू की कुछ समझ नहीं आता,




"रब" गर जो मिले मुझे मिले कहीं,
तो उस "रब" से पूछूंगा वहीं,
" की मुझे मेरी ख़ता तो बता दो,
ये सज़ा मुकरर की है मेरी, उसकी वज़ह तो बता दो",
मैंने भी तेरी बन्दगी में ये ज़िन्दगी  गुज़ारी है,
फिर क्यों इन आँखों में तेरे लिए रुसवाई है,
ए मेरे रब्बा, अब तू ही बता…
मुझे अब तेरे सिवा कोई दूजा नज़र नहीं आता,
क्या करू की कुछ समझ नहीं आता..!!

(KJ00003)